The Pillar Logo

अध्यात्म पलायन नहीं सिखाता जीवन जीना सिखाता है

  यह लेख 05 December 2023 का है।

अध्यात्म पलायन नहीं सिखाता जीवन जीना सिखाता है


जब तक शरीर है संसार में रहना है। भूख, प्यास महसूस होती है तब तक इस संसार को नाशवान्, क्षण-भंगुर कहकर लोकजीवन की उपेक्षा करना बहुत बड़ी भूल है; अपने आपको धोखा देना है। ऐसी स्थिति में मुक्ति असंभव है। अपने वैयक्तिक सामाजिक, सांसारिक उत्तरदायित्वों को त्यागकर जीवन मुक्ति की चाह रखने वाले व्यक्ति को इस संबंध में निराश ही रहना पड़े तो कोई आश्चर्य नहीं। अध्यात्म शास्त्र के प्रणेता ऋषियों ने तो मनुष्य को उत्तरोत्तर कर्तव्ययुक्त जीवन बिताने का निर्देश दिया था।

आश्रमों में प्रथम ब्रह्मचर्याश्रम में विद्याध्ययन, गुरु सेवा, आश्रम कार्य, फिर इससे बढ़कर गृहस्थ में परिवार के भरण-पोषण का भार, समाज के कर्तव्यों का उत्तरदायित्व सौंपा था। क्रमशः वानप्रस्थ और संन्यास लोक-शिक्षण, जन-सेवा के लिए निश्चित थे। इस व्यवस्था के अनुसार, एक क्षण भी मनुष्य उत्तरदायित्वहीन जीवन नहीं जी सकता। कैसा था उनका अध्यात्म ? जनक राजा होकर भी जीवन मुक्त थे। हरिश्चंद सत्यवादी – राम अवतारी। कृष्ण भोगी होकर योगी थे। क्रोधी स्वभाव होने पर भी दुर्वासा महर्षि थे, श्रीकृष्ण के गुरु।

ADVERTISEMENT

👉 जो लोक-जीवन को पुष्ट न कर सके, जो व्यक्ति का सर्वांगीण विकास साध न सके, जो जगपथ पर चलते हुए मनुष्य को शक्ति-प्रेरणा न दे सके, जो मनुष्य को व्यावहारिक जीवन का राजमार्ग न दिखा सके, वह “अध्यात्म विज्ञान” हो ही नहीं सकता।

👉 अध्यात्मशास्त्र में तो अपने लाभ की बात, अपने सुख की इच्छा का बिल्कुल ही स्थान नहीं है, चाहे वह लौकिक हो या पारलौकिक। वहां तो अपने से सबमें प्रयाण होता है। संकीर्ण से महान् की ओर, सीमित से असीम की ओर गति होती है। ऋषि कहता है- “मुझे राज्य की, स्वर्ग की, मोक्ष की कामना नहीं है। मुझे यदि कोई चाह है तो वह दु:खी-आर्त लोगों की सेवा करने, उनके दु:ख-दर्द को दूर करने की।” कैसा महान् था हमारा अध्यात्म शास्त्र-जो मोक्ष, स्वर्ग, राज्य की संपदाओं को भी ठुकरा देता था। एक हम हैं कि संतान – धन – पद – यश – स्वर्ग की प्राप्ति के लिए “अध्यात्मवादी” बनने का प्रपंच रचते हैं, अपनी आत्मा को धोखा देते हैं। वस्तुतः जो अंतर-बाह्य, लौकिक-पारलौकिक सभी क्षेत्रों में हमें “व्यक्तिवाद” से हटाकर “समष्टि” में प्रतिष्ठित करें, व्यक्तिगत चेतना से उठाकर विश्व-चेतना में गति प्रदान करे वहीं से “अध्यात्म” की साधना प्रारंभ होती है।
सादर
अरविन्द भारद्वाज

ADVERTISEMENT

Comments

Related